बिहार का मधेपुरा विधानसभा: समाजवाद की राजनीति का गढ़, सियासी दिग्गजों की विरासत पर नई पीढ़ी की नजर

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Madhepura Assembly 2025

Madhepura Assembly 2025: समाजवादी आंदोलन की धुरी रहे मधेपुरा जिले की पहचान केवल कोसी अंचल या सीमांचल की राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह इलाका पूरे प्रदेश में सत्ता के समीकरणों को प्रभावित करता है। समाजवाद के पुरोधा भूपेंद्र नारायण मंडल और मंडल कमीशन के अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मंडल की धरती रही मधेपुरा, शरद यादव और लालू यादव जैसे दिग्गजों की भी कर्मभूमि रही है। इन नेताओं ने एक-दूसरे को हराकर नई सियासी इबारत भी लिखी, तो केंद्र सरकार में मंत्री बन मधेपुरा के स्वर को दिल्ली तक बुलंद किया।

दिग्गजों की विरासत और नई नेतृत्व की रेस

मधेपुरा की राजनीति में जितनी चर्चा उसके पुराने दिग्गजों की है, उतनी ही टिकट की दौड़ में लगे नए चेहरों की भी। मौजूदा मधेपुरा सदर सीट पर RJD के प्रो. चंद्रशेखर लगातार तीन बार विधायक हैं, लेकिन उनके अलावा दर्जनों नेता पार्टी टिकट के लिए दावा ठोक रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी छोड़कर आए ई. प्रणव प्रकाश, पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव के पुत्र शांतनु, जिलाध्यक्ष जयकांत यादव, बीपी मंडल के पौत्र निखिल मंडल, आरपी यादव के पुत्र डॉ. सत्यजीत यादव समेत कई नाम मांग में हैं।

यादव राजनीति का गढ़ और सीटों का समीकरण

मधेपुरा को बिहार की ‘यादव राजनीति’ का गढ़ माना जाता है। विधानसभा की चार में दो सीटें (मधेपुरा सदर व सिंहेश्वर) राजद के पास हैं, वहीं बिहारीगंज व आलमनगर जदयू के। सिंहेश्वर (सुरक्षित) सीट से विधायक चंद्रहास चौपाल के खिलाफ भी कई चेहरे चुनावी तैयारी में हैं। जदयू की सिटिंग सीटों पर फिलहाल बदलाव के आसार नहीं। चारों सीटों पर जातीय समीकरण, स्थानीय मुद्दे, बाढ़, बेरोजगारी और विकास पर बहस तेज है।

सियासी यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव

पूर्णिया के सांसद पप्पू यादव ने भी मधेपुरा की सियासत से राजनीतिक सफर शुरू किया था। यहां जनसंघ को पहली जीत दिलाने वाले राजनंदन यादव, विद्याकर कवि, वीरेंद्र सिंह जैसे नेताओं की भी मजबूत उपस्थिति रही है। समय के साथ यह इलाका शरद, नीतीश और लालू के इर्द-गिर्द घूम गया।

वोटरों की पसंद बदल रही पर जातीय गणित बरकरार

2025 के चुनाव में बेरोजगारी, कृषि सुधार, कोसी की बाढ़ और युवाओं का भविष्य सबसे बड़े मुद्दे माने जा रहे हैं। विकास के नाम पर वोटिंग बढ़ रही है लेकिन जातीय समीकरणों की अहम भूमिका अब भी बरकरार है। हर चुनाव में सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मधेपुरा में अपना पखवाड़ा गुजारते हैं, जिससे जिले की राजनीति का केंद्रीय महत्व साफ झलकता है।

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